किसी भी लक्ष्य को हासिल करने या उस तक पहुँचने के लिए कुछ तयशुदा मार्ग होते हैं और कुछ मार्ग अदृश्य भी रहते हैं। यहाँ इस सेवा के माध्यम से जो लक्ष्य हासिल करने की कोशिश की जा रही हैं वह उन अपवादों में शामिल नहीं है जो बिना मार्ग के ही लक्ष्य तक पहुँचाने का सपना दिखाती है तथा बड़े-बड़े उपलब्धियों को लोगों के हाथों में सौंपने का दावा करती है। हम उन लोगों की फेहरिस्त का हिस्सा नहीं हैं जो परिणाम को पहले बड़ा कर दिखाते हैं और उपलब्धियां न आने पर बँगले झाँकते हुए बहाना ढूंढते हैं। हमारा संकल्प, हम विज्ञापनों के जरिये लोगों तक पहुँचने का प्रयास करने के बजाए अपने सिद्धान्तों, विश्वासों और मूल्यों के जरिये आमजनों तक पहुँचेंगे। हम आदिवासी लोग विज्ञान के साथ-साथ प्रकृति के नियम, चिन्ह, दृश्यमान पर भरोसा करते हुए अपने सिद्धान्तों का विकास करते हुए निस्वार्थ मूल्यों को स्थापित करते हैं जो हमारे पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं।
स्पोर्ट्स के परीक्षित व सम्पुष्ट वैज्ञानिक सिद्धान्तों से इतर हमारा सिद्धांत प्रकृति के नियमों पर आधारित है। ये सभी सिद्धांत वैज्ञानिक सिद्धान्तों के साथ-साथ समानांतर रूप से कार्य करती है तथा इनमें टकराव की कोई भी संभावना नहीं है। यह संभव है कि वैज्ञानिक सिद्धान्तों का पहुँच हमारे सिद्धान्तों तक न हों क्योंकि विज्ञान के पास हमारे सिद्धान्तों को प्रयोग के आधार पर सिद्ध करने की संभावनाएँ सीमित हैं। हाँ, पाश्चात्य देशों में इन सिद्धान्तों पर जरुर परिक्षण हुआ है, इसलिए जाहिर सी बात है कि वे सब इस विषय में भारतीयों से आगे हैं। आइये सीमित शब्दों में इन सिद्धान्तों पर नजर डालें।
- जैव अस्तित्व चक्र
- ऋृत्विक चक्र
- जीवों में रक्त प्रवाह की दिशा
- जीवों में ताप का नियमन एवं प्रवाह
- ऊर्जा ह्रास का नियम
1. जैव अस्तित्व चक्र : सजीव ब्रमांड की एक नश्वर कृति है। इसके अंतर्गत चाहे जीव-जंतु हो या पेड़-पौधे, दोनों ही प्रकार की प्राणवान रचना अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती है। अत: इन दोनों ही प्रकार के सजीवों ने अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए अपने अंदर रचनात्मक प्रवृतियाँ विकसित कर ली हैं। ये दोनों ही सजीव अपने जैसा अर्थात् स्वजातीय सजीवों की रचना करने में सक्षम हैं जो स्वयं की मृत्यु के पूर्व अपनी संतति की रचना करते हैं और तब ये स्वयं ही मृत्यु के आगोश में समा जातीं हैं। इस तरह से उसका इस संसार में संतति सदा प्रवाहमय रहता है।
मनुष्य भी इस प्रक्रिया से अछूता नहीं है क्योंकि वह भी इस संसार का हिस्सा में से हैं। मनुष्य भी अपनी संतति को अस्तित्व में बचाए रखने के लिए प्रकृति की इस नियम का पालन करती है। अर्थात् प्रकृति के अंदर मानव भी अपनी रचनात्मकता के बल पर सजीवों के बीच जीवन प्रतियोगिता में प्रतिस्पर्धा में बनी हुई है। मनुष्य की शारीरिक रचना और उनके शरीर के अंदर हलचल, क्रिया एवं प्रतिक्रिया शरीर की इस रचनात्मकता को जीवित रखने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहती है। शरीर के आंतरिक शक्तियाँ सदा उन क्रिया-प्रतिक्रियाओं का जवाब देती है जो उसके अस्तित्व को चुनौती देती है। मनुष्य के शरीर की स्थिति कैसी भी हो, स्त्री-पुरुष, बच्चा-बुढा, मूक-वधिर, नंगा-लूला, पढ़-अनपढ़, खिलाड़ी – गैर खिलाड़ी सभी के शरीर में यह गुणधर्म समान रूप से पाई जाती है। कभी-कभी यही गुणधर्म खिलाड़ियों के खेल में प्रतिकूल प्रभाव डालता है। यही प्रतिकूल प्रभाव को हमने ध्यान में रखा है और उनके प्रभावों कमतर करने का प्रयास किया है।
2. ऋृत्विक चक्र: प्रकृति ने हरेक सजीवों को एक विशेष प्रकार के ऋृत्विक चक्र के अधीन डाल रखा है ताकि ये चक्र अपनी धुरी पर घुमती रहे और सजीवों का जीवन कि यात्रा समय के साथ-साथ आगे बढ़ता रहे। सजीवों को अपने जीवन को बनाये रखने और सम्पूर्णता के साथ निरंतरता को बनाये रखने के लिए जितनी चीजों की आवश्यकता पड़ती है प्रकृति इन्हीं चक्रों के जरिये उन्हें प्रदान करती है। प्रकृति ने सजीवों को अनेक प्रकार के ऋृतू दिए जो उन्हें अपने जीवन को एक निश्चित चक्र के माध्यम से आगे बढ़ाने में मदद करता है।

नीचे दर्शाए गए चित्र के सहारे ऋृतुओं में होने वाले परिवर्तनों को आसानी से समझ सकते है। इस चित्र के माध्यम से यह भी समझ में आ जाता है कि समय के साथ-साथ कैसे प्रकृति का बाहय दृश्य में बदलाव आता है। जो दृश्यमान है वह तो सबको दीख जाता है और उसको कोई भी बिलकुल ही स्पष्ट से और सटीकता से व्याख्या कर सकने में सक्षम होता है, पर जो दृश्य से परे होता है वह सबके लिए एक अबूझ पहेली के सामान होता है।
इन परिवर्तनों के साथ-साथ और भी परिवर्तन होता है जो प्रकृति के हर प्रकार के सजीवों के साथ होता है। धरातल में उगनेवाले पेड़-पौधे, जल, थल और वायु में विचरण करे वाले सभी जीवों में इसका प्रभाव पड़ता है। किन्तु इन जीवों में यह परिवर्तन बाहय रूप में दृष्टिगोचर नहीं होता। इसका प्रभाव उनके आदतों, व्यावहारों, क्रिया-कलापों में विचलन के रूप में दृष्टिगोचर होता है।
यह सभी परिवर्तन मानवों पर भी प्रभावी होता है। इसी परिवर्तन से प्रभावित होकर ऋृतुओं के अनुसार मानव शरीर की क्षमताओं में भी परिवर्तन होता है । यह देखा गया है कि ऋृतुओं के अनुसार खिलाड़ियों के खेल क्षमताओं में परिवर्तन होता है, उनके खेलों में उतार-चढ़ाव स्पष्ट दीखता है। इनस आंतरिक परिवर्तनों को हमने फॉर्म सबंधी अपनी अभिकल्पनाओं में उचित जगह दिया है और यह प्रभावकारी रूप से हमारे गणनाओं का समर्थन करती है।
3. जीवों में रक्त प्रवाह की दिशा: सजीवों के शरीर में जीवकोष और उत्तकों का महत्त्व किसी से छुपा नहीं है। यहाँ इतनी जगह और औचित्य नहीं है कि जीवकोष और उत्तकों के बारे में विस्तार से व्याख्या की जाय। वैज्ञानिक रूप से यह एक विशाल और गूढ़ विषय है इसकी जितनी व्याख्या की जाय उतनी कम लगती है क्योंकि यही वह चीजें हैं जो विश्व में जीवों को अस्तित्व में बनाये रखती है। संक्षेप में इनकी एक ही गुण की व्याख्या की जा रही है जो मानव शरीर में तथा इनकी क्षमताओं को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जीवकोष एक अद्भुत गुणधर्म रखती है जो जीवन को बनाये रखने के लिए प्रबद्धता दर्शाती है। स्वयं की और उत्तकों की मरम्मत करने की अद्भुत क्षमता जीवकोष में है जो आवश्यकता पड़ने पर शरीर की सारी क्रियाओं को नियंत्रित कर उसे अपनी ओर आकर्षित करती है, इसमें शरीर के अंदर रक्त प्रवाह भी एक क्रिया है जो जीवकोष के नियंत्रण में आ जाती है।
बहुत साधारण सी बात है , जब कभी मानव शरीर में गंभीर चोट लगती है या किसी कारण से घाव उभर आता है तो आस-पास की उत्तकें उसकी मरम्मत करने में जूट जाती है। उसके इस कार्य में जीवकोष की मदद के लिए रक्तकोष की आवश्यकता पड़ती है । इस अवस्था में रक्त की दिशा बदल जाती है और शरीर में यह उस दिशा की ओर दौड़ पड़ती है जिधर जीवकोष को रक्तकोष की जरूरत पड़ती है। तात्पर्य यह कि शरीर में रक्त की दिशा उस तरफ होती है जिधर जीवकोष को उत्तकों को मरम्मत करनी पड़ती है। यही दिशा मानव शरीर की कार्यक्षमताओं को प्रभावित करती जो खिलाड़ियों के भी असफल परफॉरमेंस का कारण बनता है।

4. जीवों में ताप का नियमन एवं प्रवाह: ब्रह्माण्ड में ताप का एक विशेष महत्त्व है। यह एक शक्ति है जो जीवन के लिए जरुरी है। जिस तरह वायु और जल जीवन की आवश्यक आवश्यकताओं में से एक है, ताप भी इसी समकक्ष की आवश्यकताओं में से एक है। पेड़-पौधे और जीव जन्तुओं को सामान रूप से न केवल बाहय ताप की आवश्यकता पड़ती है बल्कि उनके अन्दर स्वयं कि ऊष्मा उत्सर्जन की क्षमता की भी जरूरत होती है। शरीर की ऊष्मा उत्सर्जन की क्षमता विशुद्ध रूप से उसके भोजन, शारीरिक क्रिया-कलाप और शारीरिक क्षमताओं पर निर्भर करती है। शरीर का कोर तापमान शरीर के क्रिया-कलापों को प्रभावित करती है। शरीर का कोर तापमान यदि औसत से कम रहेगा तो यह शरीर के कार्यक्षमता के प्रतिकूल होगा और यदि यह औसत से ऊपर रहेगा तो यह कार्यक्षमता में वृद्धि करेगा।
इस तरह यह बताने की कोई जरूरत नहीं की शरीर का कोर तापमान खिलाड़ियों के लिए कितना अहम है। यदि कोई खिलाड़ी अच्छा परफॉरमेंस करना चाहता है तो उसे अपने कोर तापमान को हमेशा उच्चतर स्थिति में रखना पड़ेगा। अगर कोई खिलाड़ी अपने कोर तापमान पर काबू पा लेता है तो यह समझा जा सकता है कि उसने तरक्की का रास्ता खोज निकाल लिया है।
5. ऊर्जा ह्रास का नियम : प्रत्येक सजीवों में एक प्रकार की ऊर्जा का प्रवाह होता है। यह ऊर्जा सजीवों के शरीर की अंत: क्रियाओं के परिणाम स्वरुप पैदा होती है। कल्पना कीजिये कि किसी जीव के शरीर में सतत् रूप से ऊर्जा का निर्माण होता रहे तो कुछ सप्ताह या कुछ महीनों के बाद वह जीव कितना उर्जावान होगा। कोई मनुष्य कितना बलशाली होता, सत्य तो यह होता कि मनुष्य राक्षसी ताकत के मालिक होते। किन्तु ऐसी बात नहीं होती है। यह ऊर्जा एक सतत् चक्र के रूप में नियोजित ढंग से चलती है। यह ऊर्जा निर्माण की शुरुआत से लेकर ऊर्जा संचय की उच्चतम सीमा तक पहुँचती है इसके बाद धीरे -धीरे यह संचित ऊर्जा शरीर के अंदर ही कहीं समाहित हो जाती है। किसी को भी पता नहीं चलता कि उसने जितनी ऊर्जा संचित की थी वह कहाँ चला गया।

सत्य तो यह है कि ऊर्जा निर्माण और इसके ह्रास की प्रक्रिया एक रहट के समान होती है। जो अपने बाल्टी में पानी भरने के पूर्व स्वयं ही इन बाल्टियों को खाली करते हैं। जब तक ये बाल्टी खाली नहीं होंगे इन बाल्टियों में पुन: पानी भरने की जगह न होगी। बाल्टी में नया पानी के लिए जगह नहीं होगा। जब भी ये रहट नदियों या नालियों से पानी उठाता है तो एक निश्चित जगह में जा कर उसे पलट देता है और रहट की बाल्टियाँ खाली हो जाती है। तब ये बाल्टियाँ फिर से पानी में डूब कर नए पानी को भर कर उपर ले आता है।
मानव शरीर में भी ठीक यही प्रक्रिया चलती है। मानव शरीर अनंत ऊर्जा का स्रोत है। यह अपने अन्दर सतत् रूप से ऊर्जा का निर्माण करती रहती है। शरीर को जब भी खाना मिलता है शरीर तुरन्त उसे पचा कर ऊर्जा में तब्दील कर देता है और उसे शरीर के विभिन्न अंगो को सप्लाई कर देता है । ये ऊर्जा दैनिक क्रिया-कलापों में शरीर द्वारा खर्च होता और बचा हुआ ऊर्जा शरीर में ही संचित रह जाती है। ये ऊर्जा एक निश्चित सीमा तक ही शरीर में संचित होती है। जब ये उस सीमा को छू लेती है तो यह संचित ऊर्जा किसी न किसी माध्यम से उत्सर्जित हो जाती है या फिर शरीर में ही पुन: विलीन हो जाता है।